पर्यावरण दिवस ! पर्यावरण संस्कृति की सार्थकता

5 जून “पर्यावरण दिवस” पर वृक्ष लगाने का संकल्प लेने वाला सोशल मीडिया वर्ष भर भारतीय संस्कृति में निहित पर्यावरण संस्कृति को छलता रहता है, जिसके कारण क्लाइमेट तथा पृथ्वी का तापमान अनियमित होता जा रहा है।
सुबह उठकर तुलसी में पानी डालना, चिटी को वृक्षों के तने में भोजन देना, जिससे चिटी वहा की मिट्टी को पोरस बनाकर पानी सोखने के लायक बना दे, पीपल, बरगद के पौधो में जल चढ़ाना, वट सावित्री पर बरगद पूजना एवम् पक्षियों के लिए ग्रीष्म में गीली दाल चढ़ाना ( क्योंकि पक्षी, गिलहरी कई पौधो के बीज को रोपने का कार्य बाय डिफॉल्ट करते है) । यहां तक की पत्थर की मूर्तियों पर अक्षत ( चावल) भी सिंदूर के साथ चढ़ाया जाता है जिसको वहा के चिटी, पक्षी कीट पतंगे भोजन बना सके.. कीट पतंगे पर परागण कराने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते है।
जंगली जीव चाहे पक्षी हो या पशु उनकी उपस्थिति बीज को भोजन बनाकर मल के रूप में एक स्थान से दूसरे स्थान तक रोपने का कार्य स्वत: होने की प्राकृतिक व्यवस्था का हिस्सा है।
उसी तर्ज पर आंवला नवमी, तुलसी विवाह, एकादशी पर पीपल की पूजा , श्राद्ध के बहाने कव्वौ के शिशुओ को भोजन उपलब्ध कराने से लेकर वन्य जीवों को महत्व देना “पर्यावरण संस्कृति” को प्रदर्शित करता है।
आज सुबह से पर्यावरण के मेसेज से लबालब सोशल मीडिया का आडम्बर खासतौर पर भारतीय जन जो अपनी संस्कृति को पीठ दिखाकर दिवस पर आधारित जागृति के जाल में फसा नजर आता है।
वन्य जीव, जंगल,नदी, वनस्पति,तालाब, पर्वत को बचाने, पूजने एवम् संरक्षण की संस्कृति जो भारतीय सनातन में हजारों वर्ष पहले ही समाहित की जा चुकी है उसको उकेरने का एक छोटा सा प्रयास एवम् पूरे विश्व को इस संस्कृति का संदेश देने का प्रयास यदि आज किया जाए तो 5 जून पर्यावरण के लिए सार्थक दिन साबित हो सकता है।